छोटे से गाँव “सूरजपुर” में, जहाँ मिट्टी की सोंधी खुशबू और पेड़ों की छाँव जीवन को सुकून देती है, वहीं एक गरीब परिवार में रोहन का जन्म हुआ था। रोहन का घर कच्चा था, जिसमें बारिश की बूंदें छत से टपककर नीचे आतीं और जमीन पर छोटे-छोटे तालाब बना देतीं। लेकिन इन तालाबों से टपकते पानी की आवाज़ के बीच भी रोहन के दिल में एक आवाज़ गूंजती थी – “सपनों की डोर को कभी मत छोड़ना।”
रोहन के पिता रामलाल एक किसान थे, जो दिन-रात खेतों में काम करते लेकिन मुश्किल से घर का खर्च चला पाते। माँ सरोजा दूसरों के घरों में बर्तन मांजकर कुछ पैसे जुटातीं। रोहन की तीन छोटी बहनें थीं, जिनके लिए वह बड़ा भाई नहीं बल्कि उम्मीद का सूरज था।
सपनों की डोर का पहला सिरा
रोहन की उम्र दस साल थी, जब उसने पहली बार किताबों के पन्नों में सपनों को देखा। गाँव के सरकारी स्कूल में एक शिक्षक, मिश्रा सर, जो हमेशा बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ बड़े-बड़े सपनों की कहानियाँ सुनाते। उन्होंने रोहन से कहा,
“बेटा, सपनों की डोर बहुत मजबूत होती है। तुम बस इसे पकड़ो और मेहनत करो। एक दिन तुम्हारा नाम दुनिया जानेंगी।”
उस दिन से रोहन का सपना शुरू हुआ। उसके मन में इंजीनियर बनने की इच्छा ने जन्म लिया। वह गाँव के टूटी-फूटी सड़कों पर नंगे पाँव स्कूल जाता, किताबों को सीने से चिपकाए रखता और हर दिन खुद से कहता, “सपनों की डोर को कभी मत छोड़ना।”
संघर्षों की राह पर सपनों की डोर
लेकिन सपनों का रास्ता कभी आसान नहीं होता। जब रोहन आठवीं कक्षा में था, उसके पिता बीमार पड़ गए। घर की हालत और बिगड़ गई। खाना तो मुश्किल से जुटता ही था, पढ़ाई के लिए कॉपी-किताबों का खर्च निकालना भी नामुमकिन हो गया। एक रात रोहन ने माँ को कहते सुना,
“इस गरीबखाने में सपने देखने का हक़ ही किसे है?”
रोहन की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन उसने अपनी सपनों की डोर को कसकर पकड़ा। वह खेतों में पिता का हाथ बँटाने लगा। शाम को गाय-बकरियाँ चराता और रात को चिमनी की हल्की रोशनी में पढ़ाई करता। गाँव के लोग उसे देखकर हँसते और कहते,
“बड़े-बड़े सपने देखने से कुछ नहीं होता। मेहनत से दो रोटी कमा लो, वही काफी है।”
लेकिन रोहन के लिए सपनों की डोर एक उम्मीद की तरह थी। वह जानता था कि अगर उसने इसे छोड़ दिया, तो ज़िन्दगी का कोई मतलब नहीं रहेगा।
शहर का सपना और पहली परीक्षा
गाँव के स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद रोहन के सामने बड़ी चुनौती थी – शहर जाकर आगे की पढ़ाई करने की। लेकिन शहर जाने के लिए पैसों की ज़रूरत थी। उस वक्त उसके शिक्षक मिश्रा सर ने एक संस्था से बात करके उसे स्कॉलरशिप दिलवाई।
शहर की जिंदगी रोहन के लिए किसी युद्ध से कम नहीं थी। वह दिन में स्कूल जाता, शाम को एक दुकान पर काम करता और रात को एक छोटी-सी खोली में बैठकर पढ़ाई करता। ठंडी रातें बिना कंबल के बिताते हुए, खाली पेट सोते हुए भी रोहन का हौसला कभी नहीं टूटा। वह हमेशा खुद से कहता,
“सपनों की डोर को थामे रखो। यह तुम्हें वहाँ ले जाएगी, जहाँ तुम जाना चाहते हो।”
सपनों की डोर पर मेहनत का रंग
वक्त बीतता गया और रोहन ने स्कूल की परीक्षा में टॉप किया। उसकी सफलता की खबर गाँव तक पहुँची। मिश्रा सर ने फोन करके कहा,
“देखा बेटा, सपनों की डोर कितनी मजबूत होती है?”
अब रोहन का सपना इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेना था। उसने कड़ी मेहनत से प्रवेश परीक्षा पास की और शहर के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला पाया। लेकिन यहाँ भी संघर्ष खत्म नहीं हुआ। कॉलेज की फीस, किताबों का खर्च, और शहर की महंगी जिंदगी ने उसे तोड़ने की कोशिश की।
रोहन ने पार्ट-टाइम जॉब्स किए, ट्यूशन पढ़ाई और कभी-कभी एक वक्त का खाना छोड़ दिया। लेकिन वह अपने सपनों की ओर बढ़ता रहा।
सपनों की डोर की जीत
चार साल बाद, रोहन ने इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। उसका चयन एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में हो गया। जब पहली सैलरी आई, तो उसने सबसे पहले अपने पिता के इलाज के लिए पैसे भेजे और माँ को नई साड़ी दिलाई।
वह गाँव लौटा तो पूरा गाँव उसे देखने के लिए उमड़ पड़ा। लोग जो कभी उसके सपनों का मज़ाक उड़ाते थे, अब उसे “गाँव का हीरो” कह रहे थे। रोहन ने गाँव के स्कूल में भाषण देते हुए कहा,
“अगर मैं कर सकता हूँ, तो आप सब भी कर सकते हैं। सपनों की डोर कभी कमजोर नहीं होती। यह हमें वहाँ ले जाती है, जहाँ हमारी मंज़िल होती है।”
सपनों की डोर से नई उम्मीदें
रोहन ने गाँव के बच्चों के लिए एक नई योजना बनाई। उसने स्कूल में लाइब्रेरी बनवाई और गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप शुरू की। अब गाँव का हर बच्चा रोहन की तरह सपने देखने लगा।
निष्कर्ष:
यह कहानी बताती है कि सपनों की डोर संघर्षों के बीच भी टूटती नहीं है। अगर मेहनत, लगन और विश्वास से इसे थामा जाए, तो इंसान अपनी मंज़िल जरूर पाता है।