जहाँ तक सफर, वहाँ तक राज़
रात का सन्नाटा था। चाँदनी अपने पूरे शबाब पर थी, और सड़कों पर हल्की ठंडक महसूस हो रही थी। एक गहरी साँस लेते हुए, आदित्य ने अपने बैग की स्ट्रैप को कसकर पकड़ा और रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ चला। आज उसे एक ऐसे सफर पर जाना था, जो उसकी जिंदगी के कई अनसुलझे राज़ खोलने वाला था।
आदित्य एक पत्रकार था, जो हमेशा सच्चाई की खोज में रहता था। उसे एक पुरानी डायरी मिली थी, जो उसके दादा जी की थी। उस डायरी में किसी गुप्त स्थान और कुछ अनजान नामों का ज़िक्र था। जैसे ही उसने पन्ने पलटे, उसे एक शहर का नाम दिखा—”कंचनपुर।” यह नाम उसके लिए नया था, लेकिन डायरी में दिए गए संकेत उसे वहाँ खींच रहे थे।
रेल के डिब्बे में बैठते ही उसने डायरी को और ध्यान से पढ़ना शुरू किया। उसमें लिखा था— “जहाँ तक सफर, वहाँ तक राज़। हर कदम पर एक नया सच।” आदित्य की जिज्ञासा और बढ़ गई। वह सोचने लगा कि उसके दादा जी आखिर किस राज़ की बात कर रहे थे?
सुबह होते ही ट्रेन कंचनपुर पहुँची। यह एक छोटा-सा शहर था, लेकिन इसमें एक पुरानी विरासत की खुशबू थी। स्टेशन पर उतरकर उसने डायरी में लिखे पते को देखा और वहाँ पहुँचने के लिए टैक्सी ली। वह पता एक पुरानी हवेली का था, जो अब वीरान हो चुकी थी।
हवेली के दरवाजे पर जंग लग चुका था। उसने धीरे से धक्का दिया, और दरवाजा चरमराता हुआ खुल गया। अंदर घुसते ही उसे एक अजीब-सा अहसास हुआ, जैसे कोई उसकी प्रतीक्षा कर रहा हो। उसने चारों ओर देखा, हर चीज़ धूल में लिपटी थी। तभी एक बूढ़े आदमी की आवाज़ सुनाई दी— “काफी देर लगा दी आने में, बेटा।” आदित्य चौंक गया। उसने पीछे मुड़कर देखा तो एक वृद्ध खड़ा था, जिसकी आँखों में अनगिनत कहानियाँ थी।
“आप कौन हैं?” आदित्य ने पूछा।
“मैं रामस्वरूप हूँ, तुम्हारे दादा जी का पुराना दोस्त। मुझे पता था कि एक दिन तुम यहाँ आओगे,” बूढ़े ने कहा।
“यहाँ क्या राज़ छिपे हैं?” आदित्य ने उत्सुकता से पूछा।
रामस्वरूप ने एक लंबी साँस ली और कहा, “यह हवेली तुम्हारे दादा जी की नहीं थी, बल्कि उनके सबसे बड़े दुश्मन की थी— ठाकुर वासुदेव की। ठाकुर ने एक बड़ी दौलत छुपाई थी, और तुम्हारे दादा जी ने उसे रोकने की कोशिश की थी। लेकिन…”
“लेकिन क्या?” आदित्य ने अधीर होकर पूछा।
“लेकिन उस दौलत के पीछे कई लोगों की जान गई थी, और एक ऐसा रहस्य था, जिसे उजागर करने वाला अब तक कोई नहीं मिला,” रामस्वरूप ने कहा।
आदित्य की रुचि और बढ़ गई। “मुझे सब कुछ बताइए,” उसने अनुरोध किया।
रामस्वरूप ने हवेली के तहखाने की ओर इशारा किया। “अगर तुम सच में तैयार हो, तो नीचे जाओ और अपने दादा जी की आखिरी कहानी को खुद देखो।”
आदित्य ने अपनी टॉर्च निकाली और सावधानी से तहखाने की ओर बढ़ा। वहाँ घुप्प अंधेरा था, लेकिन उसकी टॉर्च की रोशनी में कुछ पुराने संदूक और एक दीवार पर बने कुछ निशान दिखे। उसने संदूकों को खोला, तो वहाँ पुराने सिक्के और कागज़ात थे।
उसी पल, उसे दीवार पर एक चित्र दिखाई दिया—यह उसके दादा जी का था। और चित्र के नीचे एक संदेश लिखा था— “जहाँ तक सफर, वहाँ तक राज़। कुछ राज़ हमेशा राज़ ही रहने चाहिए।”
आदित्य समझ गया कि कुछ सच ऐसे होते हैं, जिन्हें उजागर करने से अतीत के घाव फिर से हरे हो सकते हैं। उसने सबूतों को वहीं छोड़ दिया और बाहर निकल आया।
रामस्वरूप ने मुस्कुराकर कहा, “अब तुम्हें समझ आया? तुम्हारे दादा जी ने हमें यह बताने की कोशिश की थी कि हर सफर अपने साथ नए राज़ लेकर आता है, और यह हमारे ऊपर है कि हम उन्हें सुलझाना चाहते हैं या नहीं।”
आदित्य ने सिर हिलाया और वापस लौटने का फैसला किया। उसके मन में अब एक नया सवाल था—क्या कुछ राज़ वाकई अनसुलझे ही रहने चाहिए?