चाँदनी रात में घूमती यादें
सर्दी की वह चाँदनी रात, जब हर चीज़ दूधिया रोशनी में नहाई हुई थी, मेरे भीतर एक अजीब-सी बेचैनी जगा रही थी। मैं अपने घर की छत पर खड़ा होकर उस सुनहरी चाँदनी को निहार रहा था, जो ज़मीन पर मानो रेशमी चादर-सी बिछ गई थी। इस शांत रात में हल्की-हल्की ठंडी हवा मुझे बीते दिनों की यादों में बहा ले गई।
आज फिर वही पुरानी यादें मेरे मन के आँगन में घूम रही थीं। जब मैं गाँव में था, तब चाँदनी रातों में अक्सर मैं और निशा, मेरी बचपन की दोस्त, साथ बैठकर घंटों बातें किया करते थे। हमारे गाँव की कच्ची सड़कों पर चाँदनी का उजाला बिखरा रहता, और हम बेफिक्र होकर सपनों की दुनिया में खो जाते।
यादों की पहली परछाईं
मुझे याद है, निशा को चाँद बहुत पसंद था। जब भी पूर्णिमा की रात होती, वह अपनी छत पर खड़ी होकर देर तक चाँद को निहारा करती। एक बार मैंने मज़ाक में कहा था,
“निशा, तुम तो चाँद से बातें करती हो, कहीं चाँद तुम्हें अपने साथ ले न जाए!”
वह खिलखिलाकर हँस पड़ी थी और बोली थी, “अगर चाँद मुझे अपने साथ ले जाए, तो मैं तारे बनकर तुम्हारे पास वापस आऊँगी।”
तब मुझे नहीं पता था कि उसकी यह बात कभी हकीकत जैसी लगेगी।
यादों की दूसरी परछाईं
हमारी दोस्ती धीरे-धीरे गहरी होती गई। चाँदनी रातों में हम अक्सर गाँव की नदी किनारे बैठकर अपने भविष्य के सपने बुनते। वह डॉक्टर बनना चाहती थी, और मैं एक लेखक। वह कहती थी, “जब मैं डॉक्टर बन जाऊँगी, तो तुम मेरी कहानी लिखोगे ना?”
मैं हँसते हुए सिर हिलाकर कहता, “जरूर लिखूँगा, लेकिन अगर तुम बहुत मशहूर डॉक्टर बन गईं, तो मेरी कहानी का क्या होगा?”
वह हमेशा कहती, “तुम्हारी कहानियाँ तो अमर रहेंगी, मेरी दवाइयाँ तो बस कुछ ही वक्त का इलाज देंगी।”
उसकी बातों में एक अलग-सा विश्वास था, जो मुझे भी प्रेरित करता था।
यादों की तीसरी परछाईं
फिर वह दिन आया, जब निशा को शहर जाना पड़ा। उसने मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया था, और मैं गाँव में ही रह गया था। पहली बार चाँदनी रात में उसका साथ नहीं था। मैं अकेले छत पर खड़ा आसमान की ओर देख रहा था। आज चाँद तो उतना ही चमकीला था, पर मेरी दुनिया में अंधेरा था।
वह मुझसे लगातार खतों के ज़रिए जुड़ी रही। हर पत्र में वह अपने नए अनुभवों की बातें करती, और मैं उन चिठ्ठियों को पढ़कर उसकी खुशी में खुश होता। पर धीरे-धीरे उसकी चिठ्ठियाँ कम होने लगीं।
यादों की चौथी परछाईं
एक दिन उसने अपने आखिरी खत में लिखा था—
“अब मेरी पढ़ाई पूरी होने वाली है। मैं जल्द ही गाँव वापस आऊँगी। लेकिन यह शहर अजीब है, यहाँ चाँदनी रातों में भी लोग आसमान नहीं देखते। मैं जब भी छत पर जाती हूँ, तो मुझे गाँव का आँगन और तुम्हारा साथ याद आता है।”
यह पढ़कर मैं मुस्कुरा दिया था। लेकिन मुझे क्या पता था कि यह उसकी आखिरी चिट्ठी होगी।
यादों की अंतिम परछाईं
कुछ ही दिनों बाद गाँव में खबर आई कि एक सड़क दुर्घटना में निशा हमें छोड़कर चली गई।
वह रात, जब यह खबर मुझे मिली, पूर्णिमा की थी। चाँद उतना ही चमक रहा था, पर मेरी दुनिया अंधेरे में डूब गई थी।
मैं छत पर जाकर चाँद को देखता रहा। मुझे उसकी बात याद आई—
“अगर चाँद मुझे अपने साथ ले जाए, तो मैं तारे बनकर तुम्हारे पास वापस आऊँगी।”
आज जब भी पूर्णिमा की रात होती है, मैं उस सबसे चमकीले तारे को निहारता हूँ और महसूस करता हूँ कि निशा कहीं न कहीं मेरे पास ही है।
चाँदनी रात में अब भी यादें घूमती हैं, बस फर्क इतना है कि अब वे अकेली हैं।